महाराणा प्रताप :ः ऐसा व्यक्तित्व जिसने कभी अधीनता स्वीकार नहीं की

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महाराणा प्रताप जयन्ती, 2024 पर विशेष

स्वाधीनता के नाम आते ही मेवाड़ का नाम अवष्य सबके जहन में आ ही जाता है। यहां अनेक वीरों ने अपनी जान गंवाकर मेवाड़ की रक्षा की। मुगलों ने यहां कई बार आक्रमण किये लेकिन यहां के वीरों ने अपनी जान पर खेल कर मेवाड़ की रक्षा की। ऐसे ही सपूतों में से एक थे महाराणा प्रताप।

महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को राजस्थान के मेवाड़ में राजपूताना राजघराने में हुआ था। वे उदयपुर, मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे। इनके पिता का नाम उदय सिंह द्वितीय और माता का नाम महारानी जयंवता बाई था। महाराणा प्रताप सभी भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। उनका नाम इतिहास में वीरता, शौर्य, त्याग, पराक्रम और दृढ प्रण के लिये अमर है। उन्होंने मुगल बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और कई सालों तक संघर्ष किया। अंततः अकबर महाराणा प्रताप को सुधारने में असफल रहा। महाराणा प्रताप की नीतियां ब्रिटिश के खिलाफ बंगाल के स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बनीं। इन्होंने मुगलों द्वारा बार-बार हुए हमलों से मेवाड़ की रक्षा की। महाराणा प्रताप का जन्म राजस्थान के मेवाड़ के कुम्भलगढ़ में हुआ था जो आज राजसमंद जिले का उपखण्ड है। हर साल देशभर में महाराणा प्रताप की जयंती धूमधाम और हर्षोल्लास से मनाई जाती है। उन्होंने कई युद्ध में मुगलों को हार की धूल चटाई।

महाराणा प्रताप मेवाड़ के वीर योद्धा के साथ ही शौर्य, पराक्रम और साहस के लिए भी जाने जाते हैं। महाराणा प्रताप की अनंत कहानियां इतिहास के पन्नों पर अंकित है। इसके साथ ही इस वीर योद्धा पर कई फिल्में बनाई गई, पुस्तकें लिखी गयी और शोध भी हुए। लेकिन इन सभी के बावजूद आज भी लोगों में महाराणा प्रताप के बारे में जानने की उत्सुकता बनी रहती है।
महाराणा प्रताप और मुगलों के बीच कई युद्ध हुए और उन्होंने हमेशा मेवाड़ की रक्षा की। 1576 में महाराणा प्रताप और अकबर के बीच हुआ हल्दी घाटी युद्ध बहुत ही भयावह था। इस युद्ध की तुलना महाभारत युद्ध से की जाती है। कहा जाता है कि हल्दी घाटी युद्ध में अकबर के 85 हजार वाली विशाल सेना का सामना महाराणा प्रताप ने अपने 20 हजार सैनिकों से किया। बुरी तरह से जख्मी होने के बाद भी महाराणा प्रताप अकबर के हाथ नहीं आए। इस तरह से महाराणा प्रताप ने अपने कौशल और युद्ध कला का परिचय दिया।

9 जून को मुगल सम्राट अकबर के खिलाफ हल्दीघाटी की लड़ाई के दौरान महाराणा प्रताप की वीरता और नेतृत्व का जश्न मनाया जाता है। अपने लोगों के प्रति साहस और समर्पण की उनकी विरासत पीढ़ियों को प्रेरित करती है। भारतीय इतिहास में उनकी अदम्य भावना और योगदान का सम्मान करते हुए पूरे देष में उत्सव मनाए जाते हैं। राजस्थान के मेवाड़ के महाराणा उदय सिंह द्वितीय के घर जन्मे महाराणा प्रताप को वीरता और नेतृत्व की षिक्षा विरासत में मिली। उनके शासनकाल को उनके राज्य की संप्रभुता और उनके लोगों की रक्षा के लिए लड़ी गई कई लड़ाइयों द्वारा चिह्नित किया गया था। विशेष रूप से, उन्होंने मुगल सम्राट अकबर के खिलाफ स्वतंत्रता के पहले युद्ध का नेतृत्व किया। हल्दीघाटी का युद्ध उनके साहस और लचीलेपन का प्रमाण है, जहां उन्होंने मुगल सेना की ताकत का सामना किया था। प्रतिरोध और देशभक्ति की भावना का प्रतीक, महाराणा प्रताप का नेतृत्व और बहादुरी कई पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।

महाराणा प्रताप के शासनकाल में सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुगल सम्राट अकबर बिना युद्ध के प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था इसलिए अकबर ने प्रताप को समझाने के लिए चार राजदूत नियुक्त किए। जिसमें सर्वप्रथम सितम्बर 1572 ई. में जलाल खाँ प्रताप के खेमे में गया, इसी क्रम में मानसिंह (1573 ई. में ), भगवानदास ( सितम्बर, 1573 ई. में ) तथा राजा टोडरमल ( दिसम्बर,1573 ई. ) प्रताप को समझाने के लिए पहुँचे, लेकिन राणा प्रताप ने चारों को निराश किया। इस तरह राणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया जिसके परिणामस्वरूप हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ।
महाराणा प्रताप मुगल सम्राट अकबर से नहीं हारे। उन्होंने उसे एवं उसके सेनापतियो को धुल चटाई । हल्दीघाटी के युद्ध में प्रताप जीते। महाराणा प्रताप के विरुद्ध हल्दीघाटी में पराजित होने के बाद स्वयं अकबर ने जून से दिसम्बर 1576 तक तीन बार विशाल सेना के साथ महाराणा पर आक्रमण किए, परंतु महाराणा को खोज नहीं पाए, बल्कि महाराणा के जाल में फँसकर पानी भोजन के अभाव में सेना का विनाश करवा बैठे। थक हारकर अकबर मालवा चला गया। पूरे सात माह मेवाड़ में रहने के बाद भी हाथ मलता अरब चला गया। शाहबाज खान के नेतृत्व में महाराणा के विरुद्ध तीन बार सेना भेजी गई परन्तु असफल रहा। उसके बाद अब्दुल रहीम खान-खाना के नेतृत्व में महाराणा के विरुद्ध सेना भिजवाई गई और पीट-पीटाकर लौट गया। 9 वर्ष तक निरन्तर अकबर पूरी शक्ति से महाराणा के विरुद्ध आक्रमण करता रहा। नुकसान उठाता रहा अन्त में थक हार कर उसने मेवाड़ की और देखना ही छोड़ दिया।

हल्दीघाटी के युद्ध में शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को झाला मानसिंह ने आपने प्राण दे कर बचाया और महाराणा को युद्ध भूमि छोड़ने के लिए बोला। हल्दीघाटी युद्ध में युद्ध करते समय मानसिंह के हाथी मरदाना के सूंड में लगी कटार के कारण चेतक घायल हो गया एवम महाराणा प्रताप को लेकर युद्ध से बाहर निकल गया । घायल अवस्था में 20 फीट के नाले को पार कर बलिचा गांव में चेतक की मृत्यु हुई जहां आज भी चेतक का स्मारक बना हुआ है। हल्दीघाटी के युद्ध में और दिवेर और छापली की लड़ाई में महाराणा प्रताप को सर्वश्रेष्ठ राजपूत राजा और उनकी बहादुरी, पराक्रम, चारित्र्य, धर्मनिष्ठा, त्याग के लिए जाना जाता था। मुगलों के सफल प्रतिरोध के बाद, उन्हें ‘‘हिंदुशिरोमणी‘‘ माना गया।

प्रताप के जीवन में ऐसा कुअवसर भी आया कि उन्हें घास की रोटी खानी पड़ी। अकबर को सन्धि के लिए पत्र लिखना पड़ा हो। दूसरी ओर महाराणा प्रताप ने सुंगा पहाड़ पर एक बावड़ी का निर्माण करवाया और सुन्दर बगीचा लगवाया। महाराणा की सेना में एक राजा, तीन राव, सात रावत, सैकड़ों अश्वरोही, 100 हाथी, 20000 पैदल और 100 वाजित्र थे। इतनी बड़ी सेना को खाद्य सहित सभी व्यवस्थाएँ महाराणा प्रताप करते थे। अपने उतरार्ध के बारह वर्ष सम्पूर्ण मेवाड़ पर सुशासन स्थापित करते हुए उन्नत जीवन दिया। पृथ्वीराज राठौड़, अकबर के दरबारी कवि होते हुए भी महाराणा प्रताप के महान प्रशंसक थे।
महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक में 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में हुआ था, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई में ही कुम्भलगढ़ दुर्ग में ही हुआ। दूसरे राज्याभिषेक में जोधपुर के राठौड़ शासक राव चन्द्रसेेन भी उपस्थित थे।
राजस्थान के इतिहास 1582 में दिवेर का युद्ध एक महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है, क्योंकि इस युद्ध में राणा प्रताप के खोये हुए राज्यों की पुनः प्राप्ति हुई। इसके पश्चात राणा प्रताप व मुगलो के बीच एक लम्बा संघर्ष युद्ध के रुप में घटित हुआ, जिसके कारण कर्नल जेम्स टाॅड ने इस युद्ध को ‘‘मेवाड़ का मैराथन‘ कहा है।

महाराणा प्रताप ने जिस समय सिंहासन ग्रहण किया, उस समय जितने मेवाड़ की भूमि पर उनका अधिकार था, पूर्ण रूप से उतने ही भूमि भाग पर अब उनकी सत्ता फिर से स्थापित हो गई थी। बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका और इस तरह महाराणा प्रताप समय की लम्बी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करने में सफल रहे और ये समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ। मेवाड़ पर लगा हुआ अकबर ग्रहण का अन्त 1585 ई. में हुआ। उसके बाद महाराणा प्रताप उनके राज्य की सुख-सुविधा में जुट गए, परन्तु दुर्भाग्य से उसके ग्यारह वर्ष के बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावण्ड में उनकी मृत्यु हो गई। ‘एक सच्चे राजपूत, शूरवीर, देशभक्त, योद्धा, मातृभूमि के रखवाले के रूप में महाराणा प्रताप दुनिया में सदैव के लिए अमर हो गए।
अपनी मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अपना पूरा जीवन का बलिदान कर देने वाले ऐसे वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप और उनके स्वामिभक्त अश्व चेतक को शत-शत कोटि-कोटि प्रणाम।
महाराणा प्रताप जयंती पूरे देष में बड़े उत्साह और उमंग के साथ मनाई जाती है। इस दिन को विभिन्न अनुष्ठानों द्वारा चिह्नित किया जाता है, जिसमें उनकी वीरता और बहादुरी की कहानियों का पाठ भी शामिल है। शाही परिवार और आम लोग समान रूप से भारतीय विरासत की समृद्ध टेपेस्ट्री में उनके योगदान को स्वीकार करते हुए, महाराणा प्रताप को श्रद्धांजलि देते हैं। उनकी विरासत को मनाने के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम, जुलूस और सभाएं आयोजित की जाती हैं, जिससे लोगों में गर्व और एकता की भावना पैदा होती है। महाराणा प्रताप लचीलेपन और अवज्ञा के एक स्थायी प्रतीक बने हुए हैं, जो हमें विपरीत परिस्थितियों में दृढ़ संकल्प और बलिदान की शक्ति की याद दिलाते हैं।

– महेश चन्द्र शर्मा, कोटड़ा अजमेर

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