शिव दयाल मिश्रा
संसार में प्रारंभ से ही प्रेम और लड़ाई चलती आई है और आगे भी चलती रहेगी। प्रारंभ में देव और दानवों में लड़ाई हुआ करती थी। वे हमेशा एक-दूसरे को हराने और मारने पर तुले रहते थे। राजाओं में भी एक-दूसरे के राज्य पर कब्जा करने के लिए लड़ाई होती रही है। आज के जमाने में राजनीतिक दल भी एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं और हार-जीत होती रहती है। लड़ाई एक ऐसा शब्द है जिसकी क्रियान्विति से दुनियां के सारे जीव-जन्तु भी अछूते नहीं है। कुत्ते-बिल्ली भी लड़ते हैं। जंगलों की बात करें तो वहां तो हिंसक जानवर हमेशा ही अपने शिकार की तलाश में रहते हैं। वहां उदरपूर्ति के लिए लड़ाई होती है। मगर कभी-कभी एक ही प्रजाति के जानवर भी आपस में खूनी लड़ाई लड़ते हैं। गली-मोहल्ले में पड़ौसी आपस में लड़ते रहते हैं। एक दूसरे धर्म सम्प्रदाय के लोग भी आपस में लड़ते रहते हैं। चाहे वे कहते रहें कि धर्म के नाम पर लडऩा नहीं चाहिए। मगर वे भी इस लड़ाई से अछूते नहीं है। कहने का तात्पर्य ये है कि लड़ाई लडऩा भी हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। बैठे-ठाले ही लोग खेल-खेल में लडऩे लग जाते हैं। इन लड़ाइयों के पीछे कुछ न कुछ स्वार्थ होता है। वरना बिना स्वार्थ के ये सब क्यों लड़ेंगे। मगर हमारी पारिवारिक व्यवस्था में अगर कुछ अपवादों को छोड़ दें तो पति-पत्नी की लड़ाई हमेशा नि:स्वार्थ होती है। इनकी लड़ाई में कोई स्वार्थ नहीं अपितु ‘मैंÓ होता है। कभी-कभी ‘मैंÓ की यही लड़ाई धीरे-धीरे भयानक रूप भी ले लेती है जिससे अनहोनी भी हो जाती है। अक्सर यह लड़ाई ‘मैं बड़ीÓ के चक्कर में हो जाती है। आप नहीं जानते। छोड़ो ये काम आपके बस का नहीं है। आदि-आदि बातों पर ही बैठे-बैठे लडऩे लग जाते हैं और फिर कुछ समय बाद वापस फिर एक हो जाते हैं। और ये लड़ाई कभी भी कहीं भी हो सकती है। इस लड़ाई में प्रेम का पुट भी निहित होता है क्योंकि दोनों ही किसी काम को अपने-अपने तरीके से अच्छा करना चाहते हैं। किसी भी तरह की कोई बात चलती हो और वहां अगर एक-दूसरे को आपस में समर्थन नहीं मिला तो हो गई लड़ाई। बस ये लड़ाई निस्वार्थ है बाकी दुनिया में सब स्वार्थ की लड़ाई लड़ते हैं।
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