Kargil Vijay Diwas: 1999 के करगिल युद्ध में शहीद हुए थे सीकर के जाबांज, माटी में मिलकर गौरव का गुल खिला गए हमारे जाबांज
सीकर. करगिल युद्ध (Kargil Vijay Diwas) में दुर्गम पहाड़ियों पर दुश्मनों की छाती चीरकर हमारे जाबांज भारत की विजय पताका फहराकर जन-जन के जेहन में तो हमेशा के लिए जिंदा हो गए, लेकिन इसके लिए उन्हें कितनी पीड़ा- परेशानी झेलनी पड़ी। उसकी कल्पना भी कंपा देने वाली है। सेवद बड़ी के शहीद बनवारी लाल बगड़िया के बलिदान के सामने सर्वोच्च शब्द भी छोटा लगता है। करगिल युद्ध के दौरान 15 मई 1999 को बजरंग पोस्ट पर अपने साथियों के साथ पेट्रोलिंग करते समय कैप्टन सौरभ कालिया की अगुआई में उनकी मुठभेड़ पाकिस्तानी सैनिकों से हो गई। महज सात बहादुरों के सामने पाकिस्तान के करीब 200 सैनिक आ डटे।
अंगुलियां काटी, गर्म सलाखों से गोदा
दोनों ओर से जबरदस्त फायरिंग और गोलाबारी शुरू हो गई, जिसमें काफी देर तक जाट रेजिमेंट के यह जाबांज दुश्मनों के दांत खट्टे करते रहे, लेकिन हथियार खत्म होने पर पाकिस्तानी सैनिकों ने उन्हें घेरकर गिरफ्त में ले लिया। उनके साथ 24 दिन तक बर्बरतापूर्वक व्यवहार किया गया। उनके हाथ पैर की अंगुली काटने के अलावा, गरम सलाखों से गोदने और आंखें फोड़ने के बाद उनका शव क्षत विक्षत हालत में छोड़ दिया गया। जो भारतीय सेना को 9 जून को मिला। तिरंगे में लिपटा शहीद का शव जब चिथड़ों के रूप में घर पहुंचा तो दिल को गहराईयों तक झकझोर देने वाले उस दृश्य को भी देखना बेहद दुष्कर हो गया था। शहीद बनवारी लाल बगड़िया 1996 में जाट रेजिमेंट में शामिल हुए थे। 1999 में करगिल युद्ध के दौरान उनकी नियुक्ति काकसर सेक्टर में थी। सैनिकों के शव मिलने के बाद कारगिल युद्ध बड़े स्तर पर शुरू हो गया और करीब 60 दिन युद्ध चलने के बाद 26 जुलाई 1999 को भारतीय सैनिकों ने कारगिल युद्ध में पाकिस्तान सेना को खदेड़ते हुए जीत हासिल की
15 घुसपैठियों को मौत के घाट उतारा
1971 में भारत पाक युद्धकाल में हरिपुरा गांव में जन्में श्योदाना राम के जहन में देशभक्तिका जज्बा जन्म से ही पला था। बालपन से ही उन्हें तिरंगे से बेहद लगाव रखने वाले श्योदानाराम देशभक्ति के नाटकों में चाव से भाग लेकर भाव से अभिनय करते थे। उम्र के साथ जवान हुआ देशभक्ति का यही जज्बा उन्हें 20 साल की उम्र में ही 17 जाट रेजीमेंट में सिपाही पद पर ले गया। जहां से छुट्टियों में घर लौटने पर भी वे हमेशा देश के लिए कुछ कर गुजरने की बात वह अक्सर अपने परिजनों व दोस्तों से कहते। आखिरकार 1999 के करगिल युद्ध में उन्होंने कही कर भी दिखाई। 7 जुलाई को मोस्का पहाड़ी स्थित पाकिस्तानी घुसपैठियों का आसान निशाना होने पर भी दुर्गम चट्टानों को पार करते हुए जांबाज ने अपनी पलटन के साथ एक के बाद एक 15 घुसपैठियों को मौत के घाट उतार दिया। लेकिन, जैसे ही वह सैनिक चौकी पर भारतीय झंडा फहराने के मुहाने पर थे, तभी दुश्मन के एक आरडी बम के धमाके ने उन्हें हमेशा के लिए मौन कर दिया। जिस तिरंगे से उसे सबसे ज्यादा प्रेम था उसी में लिपटी उसकी पार्थिव देह घर पहुंची।