जगद्गुरु श्रीकृपालु जीमहाराज की प्रचारिका सुश्रीश्रीधरी दीदी द्वारा विशेष लेख!
संसार में प्रायः लोग वैराग्य के वास्तविक अर्थ को समझे बिना ही स्वयं को विरक्त मानकर इस भ्रम में जीते रहते हैं कि हम भक्ति के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ रहे हैं।
लेकिन ऐसे वैराग्य से आध्यात्मिक पथ पर हमारी उन्नति नहीं हो सकती। अतएव जिज्ञासु साधक को वैराग्य का स्वरूप भलीभाँति समझकर उसे दृढ़ से दृढ़तर करते जाना होगा तभी लाभ मिल सकता है। हमारे शास्त्रों में वैराग्य के दो प्रकार बताये गए हैं। #जगद्गुरुश्रीकृपालुजीमहाराज उन्हीं प्रकारों पर प्रकाश डालते हुए स्वरचित ग्रन्थ ‘#राधागोविंदगीत’ में कहते हैं –
वैराग्य भेद दो हैं गोविंद राधे,
युक्त अरु फल्गु वैराग्य बता दे।
अर्थात् एक कहलाता है #युक्तवैराग्य व दूसरा प्रकार कहलाता है #फल्गुवैराग्य।
इन दोनों में से युक्त वैराग्य ही असली वैराग्य है जो ग्राह्य है, इसी वैराग्य को अपनाने से साधक की साधना तीव्र से तीव्रतर होती जाती है किन्तु फल्गु वैराग्य तो एक छलावा मात्र है, वह त्याज्य है क्योंकि उसको अपनाने से तो केवल साधक का अहंकार पुष्ट होता जाता है, साधना में कोई वृद्धि नहीं हो सकती। इसलिए श्री महाराज जी ने कहा –
युक्त वैराग्य ग्राह्य गोविंद राधे,
फल्गु वैराग्य त्याज्य धोखा बता दे।
(राधा गोविंद गीत)
इनमें से युक्त वैराग्य वह है जिसमें साधक भलीभाँति वैराग्य के स्वरूप को समझकर, संसार की असारता, देह की नश्वरता इत्यादि पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए मन को संसार से हटाने का, अलग करने का निरंतर अभ्यास करता रहता है। क्योंकि हमारे शास्त्र कहते हैं –
चित्तमेव हि संसारस्तत्प्रयत्नेन शोधयेत्
अर्थात् हमारे मन में बसा हुआ संसार ही सबसे बड़ा संसार है उसी को समाप्त करने का ही नाम वास्तव में वैराग्य है।
वैराग्य शब्द का अर्थ है – विगत राग। अर्थात् जिसका राग यानि संसार में मन का लगाव या आसक्ति चली जाय वह विरक्त है। यह आसक्ति अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों भावों से हो सकती है। अर्थात् दोस्ती या दुश्मनी दोनों ही भावों से हमारे मन का लगाव होता है। इसी दोस्ती या प्यार को हम राग और दुश्मनी को द्वेष कहते हैं। तो राग व द्वेष दोनों से ही अलग होने का नाम वैराग्य है।
क्योंकि संसार में राग अथवा द्वेष करने का परिणाम कर्मबन्धन ही है। अतएव दोनों विकारों से मन को खाली कर देना ही विरक्ति है। इसी भाव को कबीरदास जी ने निम्न शब्दों में व्यक्त किया है –
कबिरा खड़ा बाजार में, सबकी माँगे खैर,
ना काहू सों दोस्ती, ना काहू से बैर।
इस वैराग्य की परिपक्वता के लिए –
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्
(गीता : 13-8)
अर्थात् जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था, रोग आदि में दुःख रूप दोषों का बार-बार विचार करना चाहिए साथ ही गुरुनिर्दिष्ट साधना का अभ्यास भी करते रहना चाहिए।
दूसरी ओर फल्गु वैराग्य का अर्थ है नकली वैराग्य। जिसमें व्यक्ति बहिरंग रूप से तो संसार से विरक्त होने का भ्रम पाल लेता है लेकिन मन में संसार बसा होता है। जैसे फल्गु नदी अन्य नदियों की तरह न बहकर भूमि के अंदर बहती है, उसे अंतः सलिला भी कहते हैं यानि ऊपर बालू दिखती है लेकिन भीतर जल होता है।
इसी प्रकार इस वैराग्य को फल्गु इसलिये कहा गया क्योंकि इसमें बाहर से तो व्यक्ति का वैराग्य दिखाई पड़ता है किन्तु उसका मन विषयों से विरक्त नहीं होता।
अतएव फल्गु वैराग्य त्याज्य है क्योंकि मन ही प्रत्येक कर्म का कर्ता है, अतः संसार से विरक्त भी मन को करना है। इन्द्रियों की विरक्ति, बहिरंग विरक्ति, वास्तविक विरक्ति नहीं है। कई बार संसार का अभाव मिलने पर भी व्यक्ति स्वयं को वैराग्य युक्त मान लेता है, लेकिन ऐसा व्यक्ति संसार का सामान मिलते ही पुनः उन विषयों में आसक्त हो जाता है। जबकि वास्तविक वैराग्य वह है जिसमें संसार का यथोचित उपयोग करते हुए भी मन की आसक्ति उन विषयों में न हो।
अस्तु इस प्रकार के फल्गु वैराग्य से बचते हुए, युक्त वैराग्य को धारण करने का ही अभ्यास साधक को निरंतर करना चाहिए।
सुश्रीश्रीधरी दीदी प्रचारिका जगद्गुरु श्रीकृपालुजी महाराज।