छोटे राज्यों के गठन से क्या मिलता है आम आदमी को?


शिव दयाल मिश्रा
गाहे
बगाहे पिछले कुछ वर्षों से छोटे राज्यों के गठन का सिलसिला सा चल पड़ा है। पिछले वर्षों में आंध्र प्रदेश को तोड़कर तेलंगाना बना दिया गया। उससे पहले झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड बनाए गए। इसे काफी समय पूर्व महाराष्ट्र को तोड़ा गया। पंजाब को तोड़कर हिमाचल प्रदेश और हरियाणा बना दिया गया। इन राज्यों को तोड़कर छोटे-छोटे राज्य बनाने से क्या वाकई आम आदमी के जीवन स्तर में सुधार आया है विकास की गति तेज हुई है। ये एक आकलन करने का विषय है। अब चर्चाएं चल रही हैं कि उत्तर प्रदेश को तोड़कर चार भांगों में बांटा जा सकता है यानि एक उत्तर प्रदेश में से छोटे-छोटे चार राज्य बन सकते हैं। इसी प्रकार राजस्थान को भी तोड़कर दो राज्य बनाने की दबी-छुपी मांग उठती रही है। देश जब आजाद हुआ था तब सैंकड़ों रियासतों को मिलाया गया था। उन सैंकड़ों रियासतों को एक करने में सरदार पटेल को पता नहीं कितने पापड़ बेलने पड़े थे। लेकिन अब राजनीतिक छत्रपों के सपने हिलोरें लेने लगे हैं तो राज्यों को तोड़कर छोटे-छोटे राज्य विकास के नाम पर बनने लगे हैं। जिन्हें उचित नहीं कहा जा सकता। एक नया राज्य बनने का मतलब है करोड़ों अरबो रुपए का खर्चा होना। एक नई सरकार का गठन जिसमें मुख्यमंत्री और मंत्री तथा विधानसभा, सचिवालय और न्यायालय यानि की तमाम तरह के सरकारी कार्यालय नए सिरे से बनाने होंगे। जिनमें खूब सारा पैसा लगेगा जो जनता की गाढ़ी कमार्ई से ही जुटाया जाएगा। बजाए विकास के भ्रष्टाचार के नए-नए रास्ते खुलेंगे। नए-नए राजनीतिज्ञ पैदा होंगे। उनकी महत्वाकांक्षाएं हिलोरे मारने लगेंगी। धीरे-धीरे बड़े राज्यों से छोटे और छोटे से महा छोटे राज्य बनने लगेंगे। कुल मिलाकर आगे आने वाले समय में वही छोटी-छीटो रियासतों जैसी स्थिति बन जाएगी। जो देश के लिए नुकसानदेह ही साबित होगी। होना तो यह चाहिए कि छोटे राज्यों को मिलाकर बड़ा बनाया जाए तथा धीरे-धीरे पूरे देश में जिला कलेक्टरों के हाथ में सारी व्यवस्थाएं आ जानी चाहिए और देश में राज्य सरकारों की जगह मात्र एक केन्द्र सरकार हो। सरकार चाहे किसी भी दल की हो। वह अपनी योजना के अनुसार सारे देश में काम तो कर सके। केन्द्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें होने से भिन्न विचारधाराओं के कारण विकास कार्यों में बाधा उत्पन्न होती है। वर्तमान समय में तो आरोप और प्रत्यारोप लगाकर राजनीतिक दल एक दूसरे को नीचा दिखाने में ही अपनी सारी ऊर्जा लगाते दिखाई दे रहे हैं। इसलिए छोटे राज्यों का गठन करने और नहीं करने पर बुद्धिजीवियों के साथ गहन विचार-विमर्श होना चाहिए और जनता से भी राय ली जानी चाहिए।
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