शिव दयाल मिश्रा
रोना भी एक कला है। हालांकि बिना रोये भी बहुत कुछ मिलता है। मगर, कहते है कि बिना रोये तो मां भी अपने बच्चे को दूध नहीं पिलाती। ये कहावत उस अबोध बालक के लिए गढ़ी गई थी जो न तो बोल पाता है और न ही कुछ कर पाता है सिवाय रोने के। खैर, बच्चों की छोड़ो। बड़ों की बात करें तो वे भी कई तरह का रोना रोते हैं, मगर जरूरी नहीं कि रोने से हर चीज मिल ही जाए। लेकिन, जिसको रोना है वो तो रोएगा ही। किसी की मौत हो जाए तो उसके परिजन दहाड़े मार-मार कर रोते हैं। मगर मिलने की बात तो दूर, मरने वाला अपनी बंद आंखों को खोलता भी नहीं है। कहने का मतलब मनुष्य को जन्म से लेकर मरने तक कई तरह का रोना उसे रोना ही पड़ता है। कईयों को रोने से कुछ मिल जाता है और कई लोग जीवनभर रोना ही रोते रहते हैं। निजि और सरकारी कर्मचारियों को निजी कारश्तानियों के कारण जब उनकी नौकरी पर खतरा आता है तो वे भी खूब रोते हैं। मगर, उलझन तो सुलझती ही नहीं है। कई बार घर में पत्नी भी आंसुओं के बल पर पति को अपनी ‘सही हो या गलतÓ बात मनवाने के लिए मजबूर कर ही देती है। आंसू बहुत ही भारी हथियार है जिसके दागने पर पत्थर भी पिघल जाता है। आदमी की तो बात ही क्या है। इन आंसुओं के हथियार का प्रयोग भगवान के जीवन में भी हुआ था। एक तरफ इन्हीं आंसुओं के बल पर कैकेई ने राजा दशरथ से भगवान श्रीराम को वनवास दिलवा दिया। रोए तो राजा दशरथ भी थे मगर, कैकेई पर राजा दशरथ के आंसुओं का कोई असर नहीं हुआ। आखिरकार! राजा दशरथ ने अपने प्राण ही त्याग दिए। फिल्मों में कलाकार बनावटी आंसुओं से दर्शकों के वास्तवित आंसू निकलवा लेते हैं। आंसुओं की सूची तो काफी लंबी है। फिलहाल हम रोते-बिलखते नेताओं के आंसुओं की बात कर रहे हैं। पिछले दिनों टीवी पर कई बार हमने प्रधानमंत्री को रोते देखा है। किसान नेता राकेश टिकैत के आंसुओं ने भी मरे हुए किसान आंदोलन को जिंदा कर लिया था। आखिरकार इन्हीं आंसुओं के बल पर जिंदा हुए किसान आंदोलन के कारण सरकार को कृषि कानून वापस लेने पड़े। चुनावों में कई नेताओं को टिकट नहीं मिला तो वे भी टीवी पर दहाड़े मार-मारकर रोते हुए दिखाई दे रहे हैं। वाह रे आंसू।
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भांति-भांति का रोना!
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