शिव दयाल मिश्रा
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोडिय़े, जब लग घट में प्राण।।
हमारी भारतीय संस्कृति दया, धर्म और कर्म पर आधारित है। यहां जलचर, थलचर और नभचर। तीनों ही तरह के जीवों को प्रकृति से जोड़कर उनकी किसी ना किसी बहाने पूजा की जाती है। उनको खाने पीने के लिए कुछ न कुछ व्यवस्था भी की जाती है। जैसे पानी में रहने वाले जीव यथा मछलियों के लिए आटा, थलचरों में गाय-बैल भी पूजनीय माने जाते हैं और पक्षियों में कौए को भी श्रद्धा से बुलाया जाता है। इसी कड़ी में गॢमयों के दिनों में जानवरों को पानी पीने के लिए खेड़ भरी जाती है। कई जगह पर नदी और तालाब सूख जाते हैं तो उनमें वैकल्पिक रूप से पानी भरा जाता है। पक्षियों के लिए परिंडे लगाए जाते हैं। ताकि झुलसती हुई इस गर्मी में उन्हें पानी उपलब्ध हो सके। इस दौरान पार्क और उद्यानों सहित अनेक जगह पेड़ों के तनों पर परिंडे बांधने की होड़ सी लगी हुई है। जिधर देखो उधर ही परिंडे लगाने के समाचार सुने और पढ़े जा रहे हैं। एक दो परिंडे नहीं, सैकड़ों की संख्या में। इसी तरह एक-दो पुरुष या महिलाएं नहीं, बल्कि दसियों पुरुष महिलाएं परिंडे बांधने को पुण्य प्राप्त करने का अवसर समझ कर कार्यक्रम में भाग ले रहे हैं। वो भी सजधज कर। आजकल फोटो खींचने और ङ्क्षखचवाने चलन है। परिंडे के साथ फोटो खिंचवाना और उसे समाचार पत्रों में अगर कोई जानकार हो तो, प्रकाशित करवा दी जाती है। वरना सोशल मीडिया तो अपना है ही। कई एनजीओ संचालक इसी बहाने अपना डोनेशन जुटाने में भी सक्रिय रहते हैं। मान लिया कि किसी भी बहाने मूक पक्षियों के लिए परिंडे तो बंध गए। फोटो भी छप गई या सोशल मीडिया पर दौड़ गई। मगर पहले दिन के अलावा अगले दिन से पेड़ों पर बांधे गए परिंडे बेचारे खाली हिलते रहते हैं। उनमें कोई पानी नहीं भरता। प्यासे पक्षी आते हैं और एक से दूसरे परिंडे पर पानी के लिए उड़ते-भटकते रहते हैं। ऐसी भी क्या मजाक पक्षियों के साथ। दूसरी तरफ जो जंगली जानवर हैं उनका तो कोई धणी-धोरी ही नहीं है। एक तरफ तो पानी की तलाश में इधर-उधर भटकाव और दूसरी तरफ भूखे प्यासे हिंसक पशु निरीह और निरामिष पशुओं का शिकार कर लेते हैं।
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