शिव दयाल मिश्रा
सरकार हमेशा गरीबी मिटाने की बात करती है। अमीरी की नहीं। क्योंकि गरीबी को दया की दृष्टि से देखा जाता है। जबकि होता यह है कि गरीबी मिटाते-मिटाते युग बीत गए। परन्तु न तो गरीब मिटा और ना ही गरीबी। परन्तु अमीर जरूर मिट जाते हैं। कई बार हमारे जीवन में ऐसे दृश्य आते हैं जिन्हें देखकर हमारे मुंह से उफ् निकल जाता है। फौरीतौर पर हम किसी कच्ची बस्ती या फिर सपाट और चौड़े मार्गों से निकलते हैं तब हमें उन मार्गों के बगल में कुछ ऐसी बस्तियां देखने को मिलती हैं जिन्हें हम गंदी बस्ती कहते हैं। और वहां से गुजरते हुए हम उन्हें हिकारत की दृष्टि से देखते हैं। मगर उन गंदी दिखने वाली बस्तियों में जरा जाकर देखें तो वहां अमीरों द्वारा फैलाई गंदगी के ढेर लगे दिख जाते हैं। ये गंदगी ये गंदे और गरीब लोग तो नहीं फैलाते। ये मैले-कुचैले और फटे पुराने कपड़े पहने दिखने वाले लोगों की गंदगी नहीं है। ये उन अमीरों की बस्ती की गंदगी है, जिन्हें ये प्रात: अंधेरे में ही उठकर समेट कर अपने बोरों में भरकर ले आते हैं। अपने आपको अमीर कहलाने वाले लोग दिनभर गंदगी फैलाते हैं और ये बेचारे उन्हें हटाते रहते हैं। आजकल सहायता के नाम पर लोग ऐसी बस्तियों को ढूंढ़-ढूंढ़कर अपने काम नहीं आने वाला सामान भी यहां बांटकर चले जाते हैं और अपने आपको दानी कहलाते हैं। मगर इन गरीबों के भाग्य की भी विडम्बना है कि इनको अमीरों की झूंठन और उतरावे के कपड़े लेने के लिए उनके आगे हाथ फैलाने पड़ते हैं। होना तो यह चाहिए कि तथाकथित सभ्य समाज के लोग यहां रहने वाले लोगों को इनके कार्यों के हिसाब से सम्मानित करे। मगर सम्मान समारोह स्थलों पर तो इन्हें फटकने भी नहीं दिया जाता। सभ्य समाज की फैलाई हुई गंदगी ही इन बस्तियों में दिखाई देगी, चाहे वह गंदगी कचरे की हो या फिर चारित्रिक या और किसी प्रकार की। सभ्य समाज की गंदगी को ढोते-ढोते यह गरीब समाज घृणा का पात्र बन गया है। कई एनजीओ वाले ऐसी बस्तियों में नियमित रूप से जाकर इन्हें कुछ खाने की वस्तुएं और कुछ पुराने कपड़े वितरित करते रहते हैं। अपवाद स्वरूप कभी नए व भी होते हैं। मगर विडम्बना देखिए कि ये लोग नए कपड़े पहनते नहीं हैं। क्योंकि नए कपड़ों को देखकर इन्हें गरीब नहीं समझा जाता और ये तथाकथित अमीरों की दृष्टि से दूर कर दिए जाते हैं।
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