शिव दयाल मिश्रा
इस संसार में जो जन्म लेता है वह निश्चित रूप से एक दिन मृत्यु को प्राप्त होता है। असल में जीवन को झूठ कहें या सत्य, यह एक ऐसा काल है जिसमें अपने कर्मों के फल को भोगने का समय मिलता है (शाोक्त मान्यताओं के अनुसार)। लेकिन मृत्यु के भी कई रूप हैं। सामान्य मृत्यु और अकाल मृत्यु। हत्या और आत्म हत्या। मृत्यु के साथ ही शरीर से जीवात्मा निकल जाती है और पड़ा रहता है तो मृत शरीर, जिसे शव कहा जाता है। यहां बात चल रही है संवेदनाओं की। मनुष्य जब मर जाता है तो उसकी तरफ से तो दुनिया में कुछ भी हो। उसका तो सब खत्म। मगर, स्वार्थी आदमी की संवेदनाएं भी दिन प्रतिदिन मरती ही जा रही है। कोई दुर्घटना में अगर घायल पड़ा हो और उसे चिकित्सा की जरूरत हो तो उसे अस्पताल पहुंचाने के बजाए लोग सेल्फी लेते रहते हैं या फिर देखकर भी अनदेखा करके निकल जाते हैं। इसी प्रकार किसी हादसे में चाहे वह प्राकृतिक हो या कृत्रिम। किसी की मौत हो जाती है तो मृतक के शव को मोहरा बनाकर लोग अपनी स्वार्थ सिद्धि में लग जाते हैं। सड़कों पर जाम लगा देते हैं और मांगने लगते हैं मुआवजा। जैसे तो मृत शरीर से कर्जा चुका जाता हो। कितने ही लोग हमदर्द बनकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते रहते हैं। कितनी बुरी बात है एक ब्राह्मण का शव एक सप्ताह से भी ज्यादा समय तक अपने अंतिम संस्कार के लिए तरसता है। शव कहां से कहां पहुंचा दिया जाता है। एक ब्राह्मण पुजारी के शव का अंतिम संस्कार भी सत्ता और विपक्ष के खेल की भेंट चढ़ गया। बड़े-बड़े लोग सिविल लाइंस फाटक पर संवेदना प्रकट करते रहे। मृतक के परिजनों की सहायता के लिए मांग करते रहे। मगर सामाजिक दायित्व और संस्कृति को ताक पर रख दिया सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए। न्याय मांगना चाहिए, न्याय मांगना गलत नहीं है, मगर संवेदनाओं को मार कर नहीं। अमूमन किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसके अंतिम संस्कार के लिए ‘जल्दी करो, जल्दी करोÓ की आवाजें सुनाई देती हैं। मगर जब किसी का शव स्वार्थी लोगों के हत्थे चढ़ जाता है तो ‘जल्दी नहीं जल्दी नहीं पहले हमारे मांगें पूरी करोÓ की आवाजें सुनाई देती है। यूं तो संवेदनाएं चारों तरफ ही दम तोड़ती नजर आने लगी है। मगर, करौली और दौसा जिलों में कई तरह की संवेदनहीनता के किस्से सामने आ चुके हैं। पिछले कुछ वर्षों में कई हादसे ब्राह्मणों के साथ हो चुके हैं। करौली (कैलादेवी) के पास कुछ वर्षों पूर्व एक ब्राह्मण के हाथ इसलिए काट दिए गए, क्योकि वह जमीन को बेचने के लिए रजिस्ट्री पर दस्तखत नहीं कर रहा था। उसके बाद दूसरे केस में फिर वही जमीन का मामला और ब्राह्मण को जिंदा जला दिया गया। अब फिर से वही दास्तान दोहराई गई, मंदिर माफी की जमीन को लेकर एक ब्राह्मण की मौत। ये तो ताजा मामले हैं। कितनी ही बार वहां अनदेखी संवेदनाएं मरती रही हैं जिनका किसी को पता ही नहीं चलता। देखिए विडंबना एक ब्राह्मण का शव ऐसी परिस्थितियों में पहुंच गया जहां वह अपने अंतिम संस्कार के लिए भी तरसता रहा। मर गई ना संवेदनाएं। ये घटनाएं ऐसे क्षेत्र की हैं जहां अधिकांशत: लोकसभा और विधानसभा की सीटें रिजर्व कोटे से आती हैं। जहां हमेशा एक जाति का राजनीतिक दबदबा बना रहता है पार्टी चाहे कोई भी हो।
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