शिव दयाल मिश्रा
जब से अफगानिस्तान में तालीबान का कब्जा हुआ है अफगानी नागरिकों में देश छोडऩे के लिए भागमभाग मची हुई है। अब जबकि अमरीका अफगानिस्तान को अलविदा कह चुका है तालीबान बिना लगाम का घोड़ा हो गया है। कुछेक देशों को छोड़ दें तो दुनियाभर में तालीबान की नीतियों का विरोध हो रहा है। दुनिया के देश तालीबान को मान्यता देने और नहीं देने की उलझन में दिखाई दे रहे हैं। अमरीका के अफगानिस्तान से लौट जाने के बाद फिलहाल कोई इसका विकल्प नजर नहीं आ रहा है हालांकि पंजशीर घाटी में जरूर इसके विरोध में लड़ाई लड़ी जा रही है। पिछले दिनों तालीबानी प्रवक्ता ने अपने इंटरव्यू में कहा था कि दोहा में अमरीका और विभिन्न देशों के साथ हुए समझौते के अनुसार अफगानिस्तान की धरती से किसी भी देश के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं दिया जाएगा और न ही कहीं सैन्य कार्रवाई करेंगे। मगर अफगानिस्तान में एक गुरुद्वारे से तालीबानियों द्वारा झंडा उतार दिए जाने ुपर भारत ने अपना विरोध व्यक्त किया था जिसके बाद झंडा वापस लगा दिया गया। इसी प्रकार कश्मीर में मुसलमानों को सताया जा रहा है तो वहां हमें बोलना पड़ेगा। इसका सीधा-सीधा मतलब है कि तालीबान कश्मीर में किसी न किसी प्रकार आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देगा। आज तालीबान कश्मीरी मुसलमानों का हिमायती बन रहा है तो कल को वह कहेगा कि भारत में 20 करोड़ से ज्यादा मुसलमान हैं और हम भारतीय मुसलमानों के लिए आवाज उठाएंगे। इसका मतलब साफ है। वह सोची-समझी रणनीति के तहत भारत के मुसलमानों को भड़का कर यहां अशांति पैदा करेगा। ऐसे में भारतीय मुसलमानों को सतर्क रहना होगा और किसी भी प्रकार कट्टरता को स्वीकार नहीं करेंगे। क्योंकि तालीबानी सोच मध्ययुगीन सोच है जिसका जीता-जागता उदाहरण अफगानिस्तान में 20 साल पहले देखा गया और वर्तमान में देखा जा रहा है। हालांकि भारत में तालीबानी प्रभाव दिवास्वप्न जैसा ही है।
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