शिव दयाल मिश्रा
पिछले कोई पौने दो वर्षों से पूरा विश्व कोरोना की मार झेल रहा है। इस कोरोना की मार में कई लोग और देश बर्बाद हो चुके हैं। कितने ही परिवार उजड़ गए हैं। किसी का भाई, किसी का बेटा, किसी का पति, किसी की पत्नी, किसी की पुत्र, किसी का पुत्री कोरोना की भेंट चढ़ चुकी हैं। ऐसी परिस्थिति में कईयों की जिंदगी बेसहारा हो चुकी है। बेसहारा हुए प्राणी अपना सहारा तलाश रहे हैं, प्रकृति की मार को सहते हुए किसी तरह वापस जीवन को पटरी पर लाने की कोशिश कर रहे हैं। मगर एक तबका है जो किसी भी तरह परिस्थिति के मारे हुए लोगों के बारे में नहीं सोचता। कहने को तो बहुत सी बातें हैं। मगर इस लेख के माध्यम से सिर्फ विवाह स्थलों के बारे में थोड़ी चर्चा करें तो हम पाएंगे कि कुछ अपवाद स्वरूप सामाजिक संस्थाओं और व्यक्तिगत स्तर पर कुछ लोगों परिस्थितियों को समझते हुए शुल्क नहीं बढ़ाया है। वरना अधिकांश ऐसे विवाह स्थलों ने शुल्क में बढ़ोतरी कर दी है। अगर ऐसे विवाह स्थल वाले लोगों के दिल में थोड़ा भी दर्द होता तो ये सोचते कि लोगों ने कोरोना की मार झेली है। बेरोजगार हो गए हैं। बच्चों की पढ़ाई डगमगाई हुई है। किराए से रहने वाले लोग किराया नहीं चुका पा रहे हैं। रोजमर्रा के खर्चे चलाना भी दुश्वार हो रहा है। ऐसे में जिन लोगों को अपने विवाह योग्य युवक-युवतियों के विवाह करने हैं उन्हें एक तरफ तो महंगाई दूसरी तरफ ये मुंहफाड़े विवाह स्थलों के बढ़े हुए किराए को सुनकर दिमाग सन्न हो जाता है। लाख पचास हजार की छोड़ो, कई लाखों तक किराया कर दिया है। क्या ये लोग ऐसा नहीं कर सकते कि ये जो किराया बढ़ाया है उसे कुछ समय तक स्थगित रखते। कुछ तो जातिगत संस्थाओं के सामुदायिक केन्द्र हैं जिन्हें सरकार से सामाजिक कार्यों के लिए सरकार से सस्ती दरों पर जमीन लेकर बनाया गया है। ऐसी संस्थाओं ने भी अप्रत्याशित किराया बढ़ा दिया है। ये पूरी तरह व्यावसायिक हो गए हैं। सामाजिक संस्थाओं को चाहिए कि जब जीवन पटरी पर आ जाए तब तक तो ऐसे शुल्क में कमी करनी चाहिए थी। मगर किया इसका उल्टा जो सोचनीय बात है।
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