Mudiya Mela: ब्रज का राजकीय मुड़िया मेला निरस्त, नहीं उमड़ेगा आस्था का सैलाब

  • मुड़िया पूर्णिमा को निरस्त करने के जिलाधिकारी मथुरा ने दिए आदेश
  • Mudiya Mela कोरोना के चलते मुड़िया महंत स्थानीय लोगों की राय पर मेला निरस्त का आदेश जारी कर दिया।
  • इस साल 465 वां मुड़िया महोत्सव मनाया जाएगा। आषाढ़ पूर्णिमा को ही मुड़िया पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है।

राधा शरण शर्मा
गोवर्धन @ जागरूक जनता नेटवर्क।
कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए मुड़िया महंत, मंदिर प्रबंधन, स्थानीय लोग और प्रशासन में मुड़िया मेला को निरस्त करने पर एकमत से सहमति बनी तो जिलाधिकारी नवनीत चहल ने मेला निरस्त का आदेश जारी कर दिया। मेला तो नहीं लगेगा लेकिन मुड़िया परंपरा कुछ संतो के साथ सूक्ष्म रूप में निभाने पर भी सभी ने सहमति जताई।

दरअसल मथुरा जिले के गोवर्धन में प्रतिवर्ष पांच दिवसीय राजकीय मुड़िया पूर्णिमा मेला का आयोजन आषाढ़ पूर्णिमा पर होता है। इस बार यह मेला 20 से 24 जुलाई तक है। गोवर्धन पर्वत को भगवान श्रीकृष्ण का साक्षात स्वरूप मानकर भक्त गिरिराजजी नाम से बुलाते हैं। इनकी 21 किमी की परिक्रमा है, श्रद्धालु अनवरत परिक्रमा करते रहते हैं। इस मेला में करीब एक करोड़ श्रद्धालुओं के पहुंचने का अनुमान होता है। कोरोना संक्रमण के चलते जिला प्रशासन ने मुड़िया मेला पर लोगों की राय जानने के लिए एक बैठक आयोजित की थी। उन्होंने मुड़िया महंत गोपाल दास, राम कृष्ण दास, महंत सियाराम दास, मुकुट मुखारविंद मंदिर सेवायत संजय शर्मा, मनोज शर्मा, चेयरमैन गोवर्धन खेमचंद शर्मा, चेयरमैन राधाकुंड टिमटू, व्यापार मंडल के संजीव लालाजी, गणेश पहलवान के साथ मुड़िया मेला के आयोजन को लेकर राय मांगी। मुड़िया महंत गोपाल दास, रामकृष्ण दास ने कहाकि आयोजन में आने वाले श्रद्धालुओं से कोरोना का खतरा बढ़ जाएगा। मुड़िया परंपरा सूक्ष्म रूप में ही निभाई जानी चाहिए। उक्त सभी ने भी एक मत से आयोजन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की, जिससे कोरोना से स्थानीय लोगों का बचाव हो सके। डल्लू मास्टर ने कहाकि इसका व्यापक प्रचार प्रसार होना चाहिए। जिससे दूर दराज के भक्तों तक मेला निरस्त होने की सूचना पहुंच सके। मुड़िया मेला को एकमत से निरस्त करने पर बनी सहमति देख, जिलाधिकारी नवनीत चहल ने भी अपनी सहमति जताते हुए आदेश जारी कर दिया।

सनातन की स्वर्णिम परंपरा का दिव्य इतिहास है मुड़िया पूर्णिमा

  • गौड़ीय संत सिर मुढाकर भजन संकीर्तन के साथ मानसीगंगा की परिक्रमा कर परंपरा का निर्वहन करते हैं
  • गिरिराजजी के परम भक्त संत सनातन की परंपरा के भक्ति सागर में मचलती विभिन्न संस्कृति की लहरें और बेतादाद श्रद्धा का अनवरत प्रवाह ही उत्तर भारत के विशाल गोवर्धन का राजकीय मुड़िया पूर्णिमा मेला की परिभाषा है। इक्कीस किमी परिक्रमा मार्ग में पांच दिनों तक अटूट मानव श्रृंखला मिनी विश्व का नजारा पेश करती है। ये मेला गौड़ीय संत सनातन की स्वर्णिम भक्ति का दिव्य इतिहास समेटे है। आषाढ़ महीने की पूर्णिमा को ही गुरू पूर्णिमा, मुड़िया पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। इस साल 465 वां मुड़िया महोत्सव मनाया जाएगा।

अद्वितीय भक्ति का स्वर्णिम इतिहास

  • आषाढ़ पूर्णिमा को ही मुड़िया पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार पश्चिम बंगाल के रामकेली गांव, जिला मालदा के रहने वाले सनातन गोस्वामी पश्चिम बंगाल के राजा हुसैन शाह के यहां मंत्री पद पर कार्य करते थे। चैतन्य महाप्रभु की भक्ति से प्रभावित होकर सनातन गोस्वामी उनसे मिलने बनारस आ गए। चैतन्य महाप्रभु की प्रेरणा से ब्रजवास कर भगवान कृष्ण की भक्ति करने लगे। ब्रज में विभिन्न स्थानों पर सनातन भजन करते थे। वृंदावन से रोजाना गिरिराज परिक्रमा करने गोवर्धन आते थे। यहां चकलेश्वर मंदिर के प्रांगण में बनी भजन कुटी उनकी साधना की गवाह बनी हुई है। मान्यता है कि सनातन जब वृद्ध हो गए, तो गिरिराज प्रभु ने उनको दर्शन देकर शिला ले जाकर परिक्रमा लगाने को कहा। मुड़िया संतों के अनुसार 1556 में सनातन गोस्वामी के गोलोक गमन हो जाने के बाद गौड़ीय संत एवं ब्रजजनों ने सिर मुंडवाकर उनके पार्थिव शरीर के साथ सात कोसीय परिक्रमा लगाई। तभी से गुरु पूर्णिमा को मुड़िया पूर्णिमा के नाम से जाना जाने लगा। आज भी सनातन गोस्वामी के तिरोभाव महोत्सव पर गौड़ीय संत एवं भक्त सिर मुड़वाकर मानसीगंगा की परिक्रमा कर परंपरा का निर्वहन करते हैं।

दो-दो शोभायात्राएं

वक्त के बदलते परिदृश्य में दो स्थानों से मुड़िया शोभायात्रा निकाली जाती है। सुबह राधा श्याम सुंदर के महंत रामकृष्ण दास के नेतृत्व में और शाम को महाप्रभु मंदिर के महंत गोपालदास के नेतृत्व में मुड़िया शोभा यात्रा निकलती है। दोनों शोभा यात्राओं में करीब पांच सौ संत सहभागिता निभाते हैं। सभी सिर मुड़वाकर और सफेद वस्त्र पहनकर निकलते हैं। गौड़ीय परंपरा के विदेशी भक्त और महिला भक्त भी इस परंपरा में शामिल होते हैं।

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