खुशी के लिए चाहिए तन से ज्यादा मन की तंदुरुस्ती

महात्मा गांधी ने कहा है, सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दुनिया में संपदा बहुत है। पर यह संपदा एक व्यक्ति के भी लालच को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। उन्होंने मानव समस्याओं के समाधान के लिए इच्छाओं की पूर्ति करने से अधिक आत्मसंतुष्टि पाने की सलाह दी है। संतोष धन को सबसे बड़ा धन माना गया है। संतुष्ट व सफल जीवन के लिए भौतिक इच्छा और कामनाओं को कम और सीमित करने की बात कही गई है।

जीवन में खुशी सब चाहते हैं। उसके लिए कई प्रकार के उपाय और साधन अपनाते हैं। आजकल स्वास्थ्य और स्वच्छता के ऊपर लोग अधिक ध्यान दे रहे हैं। क्योंकि खुशी के लिए शुद्ध और स्वच्छ परिवेश के साथ तन-मन की तंदुरुस्ती भी चाहिए। लोग अपने शारीरिक स्वास्थ्य और बाह्य वातावरण की स्वच्छता के लिए तो अधिक जागरूक हैं, पर मानसिक व भावनात्मक स्वास्थ्य और शुद्धता के ऊपर कम ध्यान दे रहे हैं।

यह सच है, खुशी के लिए शरीर का स्वस्थ होना जरूरी है। पर तन से ज्यादा मन का तंदुरुस्त होना जरूरी है। मन की खुशी और प्रसन्नता, व्यक्ति को कोई भी शारीरिक बीमारी और सांसारिक संकट के दुखदायी प्रभाव से बचाने के साथ उसे शांत, स्थिर, निर्भय, संतुलित और सुरक्षित रखने के लिए पर्याप्त आंतरिक शक्ति और सामर्थ्य देती है। सुख और खुशी में कुछ बुनियादी अंतर हैं। ये दो भिन्न अवस्थाएं हैं। सुख अधिकतर कर्मेंद्रियों की अनुभूति से जुड़ा है। खुशी मन की भावनाओं से जुड़ी है। सुख के लिए स्थूल साधन और संसाधन सहायक हैं। खुशी के लिए वस्तु या वैभवों का होना अनिवार्य नहीं है। सही सुख की अनुभूति अच्छे आहार, विहार और कर्म व्यवहार से होती है। जबकि खुशी के लिए अपनी सोच, विचार, दृष्टिकोण और आचरण का सकारात्मक और आशावादी होना जरूरी है।

खुशी एक भावनात्मक आहार है जो मन को प्रफुल्लित रखती है। तभी कहते हैं, खुशी जैसी खुराक नहीं। यानी कि जब मन खुश रहता है, तब मनुष्य शरीर की भूख-प्यास भी भुला देता है। दूसरा, सच्चा सुख कर्मेंद्रियों के सदुपयोग से मिलता है, जबकि सच्ची खुशी सांसारिक इच्छाओं को सीमित और संयमित करने से मिलती है। इंसान के दुखी, अशांत और नाखुश होने का मूल कारण उसकी समस्याएं नहीं, उसकी कलुषित मनोवृत्ति, प्रदूषित प्रवृत्ति और जटिल जीवन पद्धति है। क्योंकि हमारी वृत्ति से वातावरण और प्रवृत्ति से पर्यावरण बनता है। आज के भोगवादी जीवन, उपभोक्तावादी समाज, उत्पीड़ित प्रकृति और प्रदूषित पर्यावरण का कारण मनुष्यों में अधिक लोभ, लालच और भौतिक इच्छाएं हैं। इसलिए मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति अवश्य करे, पर इच्छाओं की वृद्धि नहीं।

महात्मा गांधी ने कहा है, सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दुनिया में संपदा बहुत है। पर यह संपदा एक व्यक्ति के भी लालच को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। उन्होंने मानव समस्याओं के समाधान के लिए इच्छाओं की पूर्ति करने से अधिक आत्मसंतुष्टि पाने की सलाह दी है। संतोष धन को सबसे बड़ा धन माना गया है। संतुष्ट व सफल जीवन के लिए भौतिक इच्छा और कामनाओं को कम और सीमित करने की बात कही गई है।

इसलिए संतुष्ट रहने को सभी गुणों का राजा माना गया है। खुशी को संतुष्टि का पर्यायवाची शब्द और गुण कहा गया है। इस सद्गुण रूपी इंद्रधनुष में ज्ञान, शांति, शक्ति, सुख, आनंद, प्रेम व पवित्रता सातों गुण यानी सतोगुण समाया हुआ है। इन आत्मिक गुणों का चिंतन ही सच्ची खुशी का स्रोत है। आत्मिक खुशी से भरा जीवन सदा स्वस्थ व संपन्न रहता है।

इस आत्मिक खुशी का शाश्वत स्रोत हैं सर्व आत्माओं के रूहानी पिता परमात्मा, जो सभी मनुष्य आत्माओं के सदृश दिव्य ज्योति बिंदु स्वरूप हैं। अपनी अंतरात्मा तथा परमपिता परमात्मा के सत्य स्वरूप और दिव्य गुणों की स्मृति, मनन, चिंतन और अनुभव में रह कर ही, कल्याणकारी कर्म करने से हमारा जीवन सदा सुखी, सफल, संतुष्ट और खुशहाल हो सकता है।

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