गरीबों का पर्याय बन गया है सरकारी स्कूल!

शिव दयाल मिश्रा
कोरोना
के चलते शिक्षा ग्रहण करने की पद्धति में बदलावा आ गया है। अब तो ऑन लाइन शिक्षा प्रारंभ हो गई है। उसी के अनुसार परिणाम भी घोषित किए जा रहे हैं। मगर कोरोना महामारी के पहले भी एक नजर देखना चाहिए। स्वतंत्रता के समय देश में अनपढ़ या अल्प शिक्षित लोगों की बहुतायत हुआ करती थी। स्वतंत्रता के बाद सरकार ने शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सरकारी स्कूल खोलने शुरू किए। गांव-कस्बों में स्कूल खुलवाने के लिए पंच-सरपंच, विधायक और सांसदों की सिफारिशों के लिए लोग चक्कर काटते रहते थे। धीरे-धीरे शिक्षित लोगों की संख्या बढऩे लगी। उस समय महिलाओं की शिक्षा पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता था। मगर पिछले कुछ वर्षों से शिक्षा के प्रति लोगों को जागृत करने के लिए जगह-जगह स्कूल खुलने लगे। महिला शिक्षा को बढ़ावा मिलने लगा। और आज महिलाएं शिक्षा के क्षेत्र में कमतर नहीं है। इसी के साथ निजि शिक्षण संस्थाएं खुलने लगी। और उन शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा मंहगी होती गई। इसके बावजूद आज स्थिति यह बन गई है कि एक साधारण आदमी भी सरकारी स्कूलों के बजाए निजी शिक्षण संस्थाओं में अपने बच्चों को पढ़ाना चाहता है। चाहे उसे कितनी ही आर्थिक परेशानी भुगतनी पड़े। दूसरी ओर सरकारी स्कूलों के परिणाम अपेक्षित नहीं आने से उनमें छात्रों की संख्या घटती चली गई। पिछले कुछ वर्षों में कई सरकारी स्कूलों को बंद भी कर दिया गया। जबकि सरकारी स्कूलों में अध्यापकों के वेतन भी ज्यादा होते हैं उसके बाद भी सरकारी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना पसंद नहीं किया जाता। सरकारी स्कूलों में बच्चियों को साइकिल भी सरकार की तरफ से वितरित की जाती है। लेकिन ऐसी क्या वजह है जिसके कारण अभिभावक अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भर्ती करवाना पसंद करते हैं। शायद लोगों के दिमाग में यह बात पैठ कर गई है कि निजी स्कूलों में पढ़ाई अच्छी होती है और सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रश्न भी बन गया है। सरकारी स्कूलों का नाम लेते ही दिमाग में आने लगता है कि यह परिवार आर्थिक रूप से कमजोर है। इसलिए लोगों की मानसिकता को बदलना होगा। दूसरी ओर सरकार को निजी स्कूलों के बच्चों को भी फीस में छूट और साइकिल आदि जो भी प्रोत्साहन के लिए दिए जाता है वह निजी स्कूलों में भी देने का कोई रास्ता ढूंढऩा चाहिए। दूसरा कारण परीक्षा परिणाम भी अच्छे आने चाहिए। जिसकी जिम्मेदारी शिक्षकों पर आती है। वरना तो सरकारी स्कूलों में गरीबी का लेबल लग गया है जिसमें कई लोग अपने बच्चों को भर्ती कराने से परहेज करने लगे हैं। [email protected]

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