शिव दयाल मिश्रा
पता नहीं, कब से इस संसार में खरीदने और बेचने का प्रचलन चला आ रहा है। मगर खरीदने और बेचने की स्थिति-परिस्थिति अवश्य भिन्न-भिन्न होती रही है। खरीद-फरोख्त के प्रचलन से पूर्व दुनिया में मुद्रा अथवा दूसरी कोई वस्तु अवश्य सामने आ गई होगी जिसके माध्यम से खरीद-फरोख्त की जा सके। खरीद-फरोख्त को अदला-बदली भी कहा जा सकता है मगर कोई जरूरी नहीं कि हर कोई विचारवान व्यक्ति खरीद-फरोख्त को अदला-बदली समझने से सहमत हो सके। मनुष्य जीवन को जीने के लिए जो भी वस्तु काम आती है वह किसी से उपहार में, दान में, चोरी से, सीना जोरी से या फिर खरीद-फरोख्त से ही प्राप्त होती है। इनके अलावा अन्य कोई माध्यम मुझे दिखाई नहीं देता। खाने-पीने, पहनने, निर्माण करने चाहे वह किसी का भी हो, आजकल तो चारित्रिक गुणवत्ता के लिए भी कक्षाएं लगने लगी है यानि की वह भी अब पैसे से बेची जाने लगी है। इतिहास में पढ़ा है कि पहले कई बाहरी आक्रांता किसी देश पर आक्रमण करते थे और जीतने के बाद लूटपाट करते तथा वहां से महिलाओं, बच्चों और नागरिकों को बंधक बनाकर ले जाते थे जिन्हें बीच चौराहों पर आमजन के लिए खड़ा कर दिया जाता था और खरीददार अपने हिसाब से देख-परखकर, टटोलकर सुन्दरता और कुरूपता के हिसाब से जानवरों की तरह खरीदकर ले जाते थे। आजकल कई सम्पत्ति जैसे सरकारी जमीन और मकान, कर्ज लेकर न चुका पाने की स्थिति में बने हुए मकान, लोन से खरीदे हुए वाहन आदि की खुली बोली लगाकर उन्हें बेचा जाता है। इस प्रक्रिया में खरीदने वाला खुश और बेचने वाला दु:खी हो जाता है। क्योंकि जिसकी सम्पत्ति बिकती है उसकी समाज में इज्जत बढ़ती नहीं, बल्कि घटती है। मगर आजकल देखा जा रहा है कि हमारे धुरंधर खिलाडिय़ों की खरीद-फरोख्त खुलेआम हो रही है और खिलाड़ी अपने आपकी बोली लगने और खरीदे जाने पर बड़ी खुशी का इजहार करते हैं और जिस खिलाड़ी की कोई बोली नहीं लगाता अर्थात खरीददार नहीं मिलता है वह बड़ा मायूस हो जाता है। समय-समय की बात है कभी खरीद-फरोख्त के लिए खड़े किए जाने पर अपमान महसूस होता है और कभी खुशी छिपाए नहीं छिपती। वाहरी दुनिया!
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