शिव दयाल मिश्रा
कोरोना महामारी इस समय अपने भयवाह रूप में सामने आ रही है। ऐसे में हमारे देश और संस्कृति में दया के साथ धर्म के आचरण की विशेषता है। मगर इस समय में न तो कहीं दया दिखाई दे रही है और न ही धर्म। सब कोरोना की भेंट चढ़ चुके हैं। ये दया धर्म से दूरी होना कोई आज से नहीं हुआ है। मगर फिर भी कहीं तो मन के किसी कोने में आदमी के दया धर्म होनी चाहिए और होती भी होगी। मगर इस समय तो लगभग जिनके हाथों में व्यवस्था है उनका ईमान मर गया है। दवाईयां गायब, परचूनी का सामान आसमान छूते भावों पर, अस्पतालों से दवाईयां गायब होकर पहुंच रही हैं निजि हाथों में। सरकारी दवाईयों और सुविधाओं का व्यापार होने लग गया। लोगों को अस्पतालों में बेड खरीदने पड़ रहे हैं प्रति दिन के हिसाब से। सरकारी वेंटीलेटरों को खराब बताकर निजी अस्पतालों में पहुंचा दिया और किराया उठा रहे हैं। एंबुलैंसों में मनमाना किराया। मरीज को देखकर भाव बढ़ा देना। और एक नई बात जो कुछ समय में उजागर हो जाएगी। कोरोना वेक्सीन के टीके चोरी-छिपे व्यक्तिगत घरों में लगाए जा रहे हैं। वे कहां से आ रहे हैं। आ तो सरकारी व्यवस्थाओं में से ही रहे हैं। मगर कैसे पहुंच रहे हैं व्यक्तिगत घरों में। ये सोचनीय बात है। सबसे पहले जयपुर के कांवटिया अस्पताल से दवाईयां स्टोर से गायब हुई और उन दवाईयों को अस्पताल से बाहर बिकने की खबरें आई। उसके बाद तो वेंटीलेटर, आक्सीजन और बेड तक की दलाली के समाचार धड़ल्ले से आने लगे हैं। मगर कार्रवाई क्या हुई या क्या होगी। ‘ढाक के तीन पातÓ। ऐसा नहीं है कि सब लोग ही ऐसे हैं, मगर जो मुख्य व्यवस्थाओं से जुड़े हुए हैं या तो वे उदासीन हैं या फिर वे किसी न किसी दबाव में कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं। सोशल मीडिया पर इन दिनों कुछ लोगों ने तो जैसे सरकार के खिलाफ मोर्चा ही खोल रखा है। बैठे ठाले उल्टी-सीधी टिप्पणी मीन-मेष निकालते रहते हैं। कोई केन्द्रीय सरकार में तो कोई राज्य सरकार में। जबकि ऐसे लोग मास्क भी नहीं लगाते हैं। भले ही घर से बाहर निकलने पर पुलिस चालान की वजह से लगा लें। जबकि सरकार जब से कोरोना चला है जोर-जोर से कह रही है कि मास्क जरूरी है। दो गज की दूरी जरूरी है। मगर ये सब कहीं नजर नहीं आता। जनता ही तो इन बातों को नहीं मान रही। फिर गाली सरकार और सरकारी व्यवस्थाओं को। सरकार और व्यवस्थाएं अपने काम कर रही हैं मगर आमजन को भी तो गाइड लाइन का पालन करना चाहिए। राजस्थानी में एक कहावत है ‘अड़ो पड़ो डोकरी के सिर पड़ोÓ। कहने का तात्पर्य ये है जो कुछ भी है सरकार के माथे पड़ो हम तो जैसे रहते हैं वैसे ही रहेंगे। इस समय सरकारी व्यवस्थाएं भी छिन्न-भिन्न सी नजर आ रही है जैसे तो कोई कुछ कहीं है ही नहीं। व्यवस्थाओं के नाम पर ‘अंधेर नगरी चौपट राजÓ जैसा हाल नजर आ रहा है। वरना जो अस्पतालों में बेड बिक्री, ऑक्सीजन सप्लाई और अन्य असुविधाएं दिखाई दे रही हैं वे नहीं होनी चाहिए।
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