मैं हिन्दी हूं, मेरी मां संस्कृत मृतप्राय: है, मुझे तो बचालो!

शिव दयाल मिश्रा
एक तरफ हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी है तो दूसरी तरफ देश में अंग्रेजी का बोलबाला बढ़ता ही जा रहा है। बढ़े भी क्यों नहीं, क्योंकि अंग्रेजी में दो लोग आपस में बात कर रहे होते हैं तो पास खड़ा व्यक्ति जो कि अंग्रेजी को फर्राटे से नहीं बोल पा रहा हो, अंग्रेजी का अल्प ज्ञान रखता हो तो वह अपने आपको हीन भावना से ग्रसित पाता है। दिमाग में आने लगता है कि हमें अंग्रेजी नहीं आती, इसलिए हमें शर्मिंदा होना पड़ रहा है। जबकि इसमें शर्मिंदा होने की कोई बात नहीं है। हम देखते हैं कि कोई भी विदेशी हमारे देश में आता है तो वह अपने देश की भाषा में ही बात करता है और हिन्दी या अंग्रेजी समझने और समझाने के लिए अपने साथ दुभाषिये को रखता है। हमारे देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से पहले अपवाद स्वरूप स्व. अटल बिहारी वाजपेयी को छोड़ दें जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में भी एकाध बार हिन्दी में भाषण दिया था। जबकि सारे पूर्व प्रधानमंत्री देश के बाहर कहीं भी अपना भाषण हमेशा अंग्रेजी में ही देते थे। कुछेक ने तो अपने देश में भी आमजनता के लिए अपना उद्बोधन अंग्रेजी में ही दिया, जनता ने भले ही उसे समझा या नहीं समझा। सब भाषाओं की जननी संस्कृत अब सिमट कर कुछ धार्मिक ग्रंथों में रह गई है और उसके जानकार भी बहुत कम मात्रा में रह गए हैं, यहां तक कि स्कूलों में पढ़ाने वाले संस्कृत के अध्यापक भी पूरी तरह उपलब्ध नहीं है। जबकि एक समय था जब बोलचाल की भाषा में भी संस्कृत का ही प्रयोग होता था। होना तो यह चाहिए था कि हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी बढ़ावा दिया जाता, मगर अब हिन्दी को लुप्त करने ने का समय ला दिया है। सरकार की नई नीति के अनुसार हिन्दी माध्यम स्कूलों को धीरे-धीरे अंग्रेजी माध्यम में परिवर्तित कर प्राइमरी स्कूलों से ही अंग्रेजी पढ़ाना शुरू कर दिया गया है और हिन्दी माध्यम के छात्रों को अब पढऩे के लिए दर-बदर होना पड़ रहा है। धीरे-धीरे हिन्दी भी अब संस्कृत की तरह गायब हो जाएगी। तो क्या हमारी राष्ट्र भाषा हिन्दी को इस तरह दम तोड़ते देखना पड़ेगा?
shivdayalmishra@jagruk-janta
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