धर्म-संस्कृति के विरुद्ध ये चुनावी चौसर है या कुछ और लक्ष्य!


भारतीय समाज संस्कृति और उत्तम संस्कारों का वाहक है जो पूर्व में भी दुनिया को जीने का मार्ग दिखाता रहा है और वर्तमान में भी ऐसा ही कुछ दिखाई देने लगा है। मगर समय की राह में यदा-कदा कुछ ऐसा वातावरण बनता है, जिससे प्राप्त कुछ नहीं होता, बल्कि एक-दूसरे में वैमनस्य भाव बनने लगता है।

शिव दयाल मिश्रा
भारतीय समाज संस्कृति और उत्तम संस्कारों का वाहक है जो पूर्व में भी दुनिया को जीने का मार्ग दिखाता रहा है और वर्तमान में भी ऐसा ही कुछ दिखाई देने लगा है। मगर समय की राह में यदा-कदा कुछ ऐसा वातावरण बनता है, जिससे प्राप्त कुछ नहीं होता, बल्कि एक-दूसरे में वैमनस्य भाव बनने लगता है। सनातन संस्कृति जीवन जीने की एक ऐसी पद्धति है जिसका कोई विकल्प नहीं है। क्योंकि शांति और उत्तरोत्तर प्रगति पूर्वक जीने का नाम ही सनातन है। जिसका ना कोई आदी है और ना कोई अंत है। सतत प्रवाहित धारा का नाम ही सनातन है। हम मध्यकालीन युग में झांक कर देखेंगे तो पाएंगे कि सनातन संस्कृति पर हमले-दर-हमले होते रहे, मगर सनातन है कि जस का तस अनवरत चल रहा है। पिछले कुछ समय से कुछ राजनीतिक दल या उनके प्रतिनिधि सनातन पर बार-बार चोट कर रहे हैं। एक के बाद एक लाइन सी लगी हुई है। ये समझ से परे है कि केवल और केवल सनातन पर ही क्यों चोट होती है। बाकी अन्य पंथ या धर्म पर कोई बात क्यों नहीं होती? कहते हैं कि जंगल में जो पेड़ सीधा होता है उसे पहले काटा जाता है। टेढ़ा-मेढ़ा पेड़ कोई काम का नहीं होता इसलिए उसे तो कोई देखना भी पसंद नहीं करता। यही हाल सनातन धर्म और संस्कृति का हो रहा है। कोई इसे मिटाने की बात करता है तो कोई रामचरित मानस को जलाने लगता है। मगर सनातन को मिटाने वाले यह भूल जाते हैं कि सद्ग्रंथ श्रीरामचरित मानस के लंका कांड में एक प्रकरण आता है जिसमें देवताओं, गंधर्वों, नवग्रहों यहां तक कि यमराज को भी रावण बंदी बना लेता है और मद में चूर अपनी पत्नी की सही सलाह को भी नहीं मानता है। वह भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम से युद्ध की ठान लेता है और अंत में परिवार सहित मारा जाता है। जब रावण युद्ध भूमि में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। तब रावण की पत्नी मंदोदरी युद्ध भूमि में पहुंचती है और अपने पति के शव को देखकर कहती है-
राम विमुख अस हाल तुम्हारा।
रहा ना कोऊ कुल रोवनिहारा।।
इसलिए आप देख सकते हैं कि रामद्रोही कभी भी सुख चैन से नहीं रह सकता। अंत में निश्चय ही उसका नाश हो जाता है। कर्म के अनुसार फल सभी को भुगतना पड़ता है। इसके लिए कर्मफल दाता ने एक रास्ता निकाल रखा है-
जासु विधि दारुण दु:ख देही।
तासु मति पहले हर लेही।।
लगता है कुछ लोगों की बुद्धि का हरण हो गया है जिससे वे सनातन और रामचरित मानस के बारे में अनर्गल बातें करने लगे हैं। फिर भी, कहा नहीं जा सकता कि ये चुनावी चौसर है या कुछ और!
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