हिमालय-हिन्द महासागर राष्ट्र समूह(हर्ष) की अवधारणा


भारत सांस्कृतिक रूप से जितना समृद्ध रहा है उतना ही आर्थिक-वैदेशिक गतिविधियों में सशक्त था। हिमालय परिक्षेत्र तथा हिन्द महासागर के तटीय क्षेत्रों के बीच सांस्कृतिक व आर्थिक आदान-प्रदान होने से भारतीय संस्कृति और सभ्यता का विस्तृत विस्तार हुआ। जिसने वेद और उपनिषद काल से लेकर आज तक ज्ञान, विज्ञान और दर्शन से विश्व को आलोकित किया है। हिमालय-हिंद महासागर राष्ट्र समूह (हर्ष)उन चौवनदेशों का समूह है जो भौगोलिक रूप से स्पष्ट व पूर्ण रूप से प्राकृतिक है और इनमें व्यापार, वाणिज्य व सांस्कृतिक संबंधों की विविधता रही है।

भारत सांस्कृतिक रूप से जितना समृद्ध रहा है उतना ही आर्थिक-वैदेशिक गतिविधियों में सशक्त था। हिमालय परिक्षेत्र तथा हिन्द महासागर के तटीय क्षेत्रों के बीच सांस्कृतिक व आर्थिक आदान-प्रदान होने से भारतीय संस्कृति और सभ्यता का विस्तृत विस्तार हुआ। जिसने वेद और उपनिषद काल से लेकर आज तक ज्ञान, विज्ञान और दर्शन से विश्व को आलोकित किया है। हिमालय-हिंद महासागर राष्ट्र समूह (हर्ष)उन चौवनदेशों का समूह है जो भौगोलिक रूप से स्पष्ट व पूर्ण रूप से प्राकृतिक है और इनमें व्यापार, वाणिज्य व सांस्कृतिक संबंधों की विविधता रही है।

भारत के व्यापारियों ने काशी, मथुरा, उज्जैन, प्रयाग और पाटलिपुत्र जैसे विभिन्न शहरों से पूर्वी तट के बंदरगाहों जैसे ममल्लापुरम, ताम्रलिप्ति,पुरी और कावेरीपट्टनम से पूर्व की ओर यात्राएं की। श्रीलंका, कंबोडिया, जावा, सुमात्रा, मलाया द्वीपों की यात्रायें कर चीन व जापान तक अपने व्यापारिक व सांस्कृतिक संबंध स्थापित किये। इन व्यापारियों को सांस्कृतिक राजदूत माना जाता था।भारत के वस्त्र, मसाले और कलाकृतियां सुदूर पश्चिमी देशों में प्रसिद्ध थे। कला के साथ-साथ संस्कृति का अधिक समावेशन भी हुआ। इसी प्रकार कई सांस्कृतिक प्रतिष्ठान जैसे कार्ले, भजा, कन्हेरी,अजंता और एलोरा आदि स्थापित हुये। इन केन्द्रों पर बौद्ध मठ के प्रतिष्ठान भी मिले है और उस समय के विश्वविद्यालयों को संवाद व सांस्कृतिक आदान-प्रदान का केंद्र माना जाता था। चीन और जापान में इनके प्रति अपार श्रद्धा है। भारतीय बंजारों का एक समूह जो खुद को रोमा कहते थे और उनकी भाषा रोमानी थी जिन्हें यूरोप में जिप्सियों के नाम से जाना जाता है। इन्होने पश्चिम में पाकिस्तान व अफगानिस्तान को पार करते हुए ईरान और इराक के रास्ते तुर्की तक यात्राएं की तथा सतत देशाटन से पर्यटन का रास्ता बना।फारस, टोरस पर्वत और कांस्टेंटिनोपल के माध्यम से यात्रा करते हुए रोमा यूरोप के विभिन्न देशों में बस गये। यही कारण कि पश्चिम के विभिन्न क्षेत्रों में पुरातात्विक उत्खनन से सिंधु सभ्यता के विभिन्न वस्तुओं की प्राप्ति हो रही है। इसी प्रकार तीसरी शताब्दी ई0पू0 में भारत का मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यता के बीच व्यापार और सांस्कृतिक संबंध रहे है।

अपने ऐतिहासिक कालक्रम में नियामक स्थिति होने के बाद भी भारत विस्तारवाद के विचार का समर्थक नहीं रहा है बल्कि विश्वबंधुत्व की अवधारणा व सांस्कृतिक नेतृत्व के गुणों का प्रशंसक रहा है। परन्तु औपनिवेशिक काल में ब्रिटेन ने अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया जैसे विभाजन करके हिमालय-हिंद महासागर राष्ट्र समूह को सीमित किया। परंतु आज अतिसक्रिय भू-राजनीतिक स्थितियों के कारण इनके बीच सांस्कृतिक व व्यापारिक सम्बन्धों की पुनर्स्थापना की प्रक्रिया को शुरू करना अनिवार्य हो गया है।
भारतीय संस्कृति का संचार कज़ाकिस्तान से लेकर कैपटाउन तक तथा किर्गिस्तान से लेकर इन्डोनेशिया तक थे। इनके बीच व्यापार व संबंध घनिष्ठ और सहजीविता पूर्ण रहे है। वर्तमान में हिमालय-हिंद महासागर राष्ट्र समूह के देश विश्व के भूभाग का एक तिहाई तथा जनसंख्या का 40.68 प्रतिशत होने के कारण एक विशाल बाजार भी है। विश्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण ‘सी लाइन ऑफ कम्युनिकेशन’ हिन्द महासागर से गुजराती है। जहां से होकर विश्व का 80 प्रतिशत व्यापार होता है। कुल ऊर्जा व्यापार का 90 प्रतिशत भाग भी यही से गुजरता है। हाल के ही दिनों में हिमालय-हिंद महासागर राष्ट्र समूह के देश नये आर्थिक संभावनाओं हेतु इन प्राचीन व्यापारिक मार्गों को पुनः स्थापित करने के इच्छुक है और इसमें भारत की सकारात्मक पहल चाहते हैं। भारतीयता का सांस्कृतिक सार व्यापार और सांस्कृतिक संबंधों को पुनः स्थापित करने के लिए जरूरी है।

लंबे समय से विलोपित हो चुके सांस्कृतिक व आर्थिक संबंधों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। इसके लिए हिमालय से हिंद महासागर तक फैले हिमालय परिक्षेत्र के राज्यों, अरब प्रायद्वीप, उत्तरी, पूर्वी व दक्षिण अफ्रीका के तटवर्ती राज्य व मेडागास्कर, तटवर्ती भारतीय क्षेत्र, श्रीलंका, खमेर, सुमात्रा, जावा, चंपा, कम्बोज, मलय, श्रीविजय क्षेत्र व आस्ट्रेलिया के साथ व्यापारिक संबंधों को पुनः स्थापित किया जाय। जिससे 21वीं शदी एशिया की शदी होगी। भारत उसका नेतृवकर्ता बनेगा। ज्ञान, विज्ञान व जीवन-मूल्यों के कारण भारतीय संस्कृति की महत्ता कोरोना काल में सिद्ध भी हो चुकी है। इसलिए इससांस्कृतिक व आर्थिक कड़ी को मजबूत करने के लिए हर्ष की अवधारणा को मूर्त रूप देना होगा।

  • डॉ. नवीन कुमार मिश्र, (भू-राजनीतिकेजानकार)


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