गणतंत्र में नए संदर्भ की जरूरत

शिव दयाल मिश्रा
सभी को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ। आज हम अपना गणतंत्र का 73वां उत्सव मना रहे हैं। हमारे पुरखों की संघर्ष-चेतना के कारण अंगे्रजों को भारत छोडऩा पड़ा था। हर तबके के भारतीय अपने-अपने तरीके से प्रतिरोध करते रहे। और ये प्रतिरोध ही आजादी की लड़ाई को उसकी परिणति तक ले गए। फिर अपने को गणतंत्र घोषित कर हमने दुनिया को यह पैगाम दिया कि देखो, इतनी विविधताएं एक साथ कैसे रहती हैं! संसार के किसी भी देश में शायद इतनी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक जटिलताएं नहीं होंगी, जितनी भारत में हैं और हमने खूबसूरती से अब तक इनको साधे रखा है। यह केवल समंजन नहीं, अपितु एक-दूसरे का स्वीकार भी है, जो हमें दुनिया का विशालतम गणतंत्र बनाता है। इसको आगे भी सहेजकर बढऩा है। 26 जनवरी, 1950 को देश के नागरिकों को यह आधिकारिक हक मिला कि उन सबके अधिकार समान हैं, और इस गणतंत्र में सबकी वाणी सुनी जाएगी। तभी से गरीबी, गंदगी, बेईमानी, जातिवाद, सांप्रदायिकता, आतंकवाद आदि से लड़ते हुए भारत को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया में हम सब जुटे रहे हैं। लेकिन आज देश को नए ढंग से आगे ले जाने के लिए नए तरीके से सोचने और क्रियान्वयन की आवश्यकता है। शासन व्यवस्था देश की समस्याओं को समझकर, योजनाओं का निर्धारण और संचालन ठीक करके कमियों को दूर करने में जुटी है। व्यवस्था देश से गरीबी दूर करने में जुटी है। निर्धनता चाहे खत्म न हो सके, क्योंकि यह एक आदर्श स्थिति है, परंतु अमीर और गरीब के बीच का अंतर हमें इतना कम करना होगा कि गरीबी नष्टप्राय मानी जाए। किसी भी गणतंत्र में ‘गणÓ के लिए भौतिक कल्याण के प्रावधानों, जैसे सड़क, बिजली, पेयजल, आवास, अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा आदि का अर्थपूर्ण महत्व है। हालांकि, यह भी ध्यान देने योग्य है कि गणतंत्र और सुशासन इनके जरिए हासिल करने के प्रथम चरण हैं। भारत में राजनीतिक अधिकारों के साथ-साथ आर्थिक वितरण के मुद्दों पर भी शुरू से गौर किया जाना चाहिए था। आर्थिक विकास के लिए सत्ता की गणतांत्रिक राजनीतिक संरचनाओं का उपयोग हाशिये पर पड़े आदमी को देखकर किया जाना चाहिए था। तभी गणतंत्रीकरण की प्रक्रिया पूर्ण होती। वैसे भी, एक आदर्श शासन-प्रणाली में अंतिम आदमी को लक्षित करके ही योजनाओं का निर्माण व क्रियान्वयन होना चाहिए, तभी सरकारें हरेक के प्रति अधिक उत्तरदाई होती हैं। नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन उनके लिए संभव नहीं हो पाता।
गणतंत्र की अवधारणा को स्थानीय परिस्थितियों में लागू करने की जरूरत है। जनता की ओर से अधिकारों के अधिग्रहण के आधार पर सरकार की प्रणाली; कानून के शासन का संस्थानीकरण; नियमों की वैधता पर जोर; और शासन में जवाबदेही, ऐसे विशेष बिंदु हैं, जो एक गणतंत्र को आभा देते हैं। गणतांत्रिकता एक संप्रभुतापूर्ण राजनीतिक व्यवस्था है, और यह निष्पक्ष, ईमानदार माध्यमों से सुनिश्चित होती है। इसमें सामूहिक भागीदारी और बुनियादी व्यक्तिगत स्वतंत्रता, दोनों शामिल हैं। गणतंत्र की मांग है कि लोगों को उनकी सहमति और जनादेश के आधार पर शासित किया जाना चाहिए। बहरहाल, आज सार्वजनिक जीवन के हरेक पहलू में नए विचारों की जरूरत है। व्यवस्था और सामाजिकता, दोनों में यदि आज खामियां दिखाई देती हैं, जिनके कारण कभी-कभी राजनीति और व्यवस्था के प्रति चिंता पैदा होती है, तो इनमें बदलाव होने चाहिए। लोगों का जीवन बदलने के लिए गणतांत्रिक व्यवस्था की क्षमता चुनावों के जरिए एक से दूसरी सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण में परिलक्षित होती है। आज गणतंत्र और सुशासन की चुनौतियों को देखते हुए तमाम विसंगतियों के खिलाफ लड़ाई पूरी प्रतिबद्धता के साथ लड़ी जानी चाहिए। श्रेष्ठ राजनीतिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक नेतृत्व ही एक गणतंत्र को गौरवशाली स्वरूप दे सकते हैं। शासन के सभी स्तरों पर कड़ी मेहनत, ईमानदारी, पारदर्शिता और उत्तरदायित्व को बढ़ावा देने से गणतांत्रिक मूल्य स्थापित होंगे। इसके लिए महत्वपूर्ण है कि गणतंत्र और सुशासन के बीच समन्वय की जांच हमेशा होती रहनी चाहिए।
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