शिव दयाल मिश्रा
आज हमारे समाज का असली चेहरा देखने की कोशिश करोगे तो जिस काम के लिए समर्थवान की जै-जै कार होती है और वही काम अगर गरीब करता है तो उसे दुत्कार और अपमान की घूंट पीकर अपमानित होना पड़ता है। हमारे देश और संस्कृति में दान देना समाहित किया हुआ है। इस काम के लिए प्रतिवर्ष कई त्योंहार आते हैं जिनपर गरीब और असहायों की कुछ सहायता कर दी जाती है। कई बार आप और हम सभी देखते हैं कि बिना किसी तीज त्योंहार के भी कई लोग हाथ में रसीद बुक लिए हुए घर के दरवाजे पर दस्तक देते हैं और गरीबों की सहायता के नाम पर तो कोई गऊशाला के नाम पर तो कोई भंडारे के नाम पर, कोई विधवा सहायता के नाम पर, तो कोई गरीब बच्चियों की शादी के नाम पर चंदा मांगते हैं। कुछ लोग वास्तव में अपनी मजबूरी के चलते चंदा मांगते हैं। वे लोग उस पैसे का बाद में कुछ भी करते होंगे। कौन देखने जाता है। मगर ऐसे लोगों को कई बार सम्मान से तो कई बार अपमानजनक शब्दों के साथ कुछ दान मिल जाता है। कई बार कमाकर खाने की नसीहत देते हुए दुत्कार के भी भगा दिया जाता है। ये तो हुई गरीबों के चंदे की बात। मगर हम देखते हैं कि कई बार अच्छे खासे पैसे वाले लोग गाडिय़ों में बैठकर आते हैं और चंदा मांगते हैं मगर चंदा देने वाला उनसे बिना किसी वाद-विवाद के बड़ी नम्रता के साथ उन्हें घर में बैठाता है चाय नाश्ता भी करवाता है और कहता है कि बताइये ‘मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं।Ó सेवा के नाम पर ये लोग 100-50 रुपए नहीं, बल्कि हजारों लाखों की रकम लेते हैं और शान के साथ धन्यवाद देकर चले जाते हैं। चुनावों के समय में नेता लोग भी खूब चंदा इकट्ठा करते हैं और लोग इन्हें खुशी-खुशी देते भी हैं। नहीं देने पर जीतने के बाद का डर भी तो दिमाग में समा जाता है। इसलिए बिना किसी ना-नुकुर के चंदे के नाम पर मोटी रकम देते हैं। मांगते दोनों ही हैं गरीब भी और अमीर भी। मगर गरीब का मांगना भीख और अमीर का मांगना चंदा कहलाता है। यही शब्दों का फर्क आदमी में जमीन आसमान का अंतर कर देता है।
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